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लोकतांत्रिक राष्ट्र के संघीय ढाचे की मजबूती के लिए सत्ता पक्ष से कही अधिक एक शसक्त विपक्ष का होना ज्यादा महतवपूर्ण है ! विपक्ष पर सरकार को निरंकुश होने से रोकने के साथ साथ उन लोगो के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी भी होती है जो अपना मत देकर उनमे अपना विश्वास दिखाते है !
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में वैसे तो क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों की काफ़ी संख्या है पर प्रमुख विपक्ष की भूमिका में भारतीय जनता पार्टी ही सदन में देश का प्रतिनिधित्व करती है ! आज के हालात में जब कांग्रेस शासित केंद्र सरकार घोटालों, अनुशासनहीनता, अक्षमनेतृत्व, मूल्यवृद्धि जैसे तमाम कारणों से जनता के बीच अपना भरोसा खोती नजर आ रही है ऐसे में इन विपरीत परिस्थितियों का सीधा लाभ विपक्ष को जाता दिख रहा था परन्तु भारतीय जनता पार्टी के आपसी अंतर्कलह ने इस पर असर डाला है !
भारतीय जनता पार्टी जिसे संघ और संस्कारो की पार्टी कहा जाता है हिन्दुवादी छवि के बूते देश में अपनी पहचान बनाने में कामयाब इस राजनीतिक दल में अचानक भूचाल सा आ गया जब पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व के चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवानी ने अपने पार्टी के लोकप्रिय मुख्यमंत्री के चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाये जाने के चंद घंटो बाद पार्टी के सभी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया !
यद्यपि पार्टी के सभी नेताओं और संघ के हस्तक्षेप और मान-मनौउल के बाद उन्होंने अपना इस्तीफ़ा वापस ले लिया लेकिन इस घटनाक्रम ने जनता के भीतर पार्टी के प्रति अविश्वास की स्थिति बनाने का कार्य किया !
जैसा कि हम सभी को ज्ञात है कि नरेन्द्र मोदी की राजनैतिक पृष्ठभूमि के पीछे लालकृष्ण आडवाणी की महती भूमिका है दोनों किसी समय में एक दूसरे के लिए हर मोर्चे पर तैयार मिलते थे चाहे गुजरात के गाँधीनगर से आडवानी का नामाकंन करा उनकी जीत सुनिश्चित कराना हो या २००२ गुजरात त्रासदी के बाद राजधर्म ना निभाने के आरोपों के बीच कुर्सी जाने से मोदी का बचाव रहा हो दोनों का साथ एक दूसरे को भरपूर मिला है !
पर राजनीति के महायुद्ध में लालकृष्ण आडवानी की गिरती लोकप्रियता और मोदी के बढते कद ने दोनों को एक दूसरे के सापेक्ष खड़ा कर दिया है !
इस बारे में किसी भी राजनीतिक पंडित को कोई भ्रम नहीं कि आडवानी ही वो शख्स है जिन्होंने अयोध्या आंदोलन से भारतीय जनता पार्टी के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया, पार्टी के विकास और उन्नति के लिए उनके योगदान किसी साक्ष्य का मोहताज नहीं इसके विपरीत पिछले दो लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार ने उनके प्रधानमंत्री पद के दावे को कमजोर कर दिया है !
राजनीति का सिद्धांत यह कहता है कि “लोकतंत्र में जो लोकप्रिय है वही नेता है” यह वक्तव्य पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी पार्टी के कार्यकारिणी की बैठक में दिया था !
वर्ष २००२ के बाद से लगतार विरोध और आलोचनाओं का सामना करते हुए नरेन्द्र मोदी ने खुद को राजनीतिक मंच पर उभारा है ! गुजरात के विकास से चर्चा में आए मोदी ने विरोधियो के आलोचनाओ का जवाब अपनी कूटनीति और कार्यशैली से दिया है ! साम्प्रदायिकता की तोहमत झेलते हुए भी मोदी ने गुजरात में चौथी बार मुख्यमंत्री पड़ की शपथ ली ! एक शसक्त मुख्यमंत्री के साथ साथ उनकी छवि प्रखर राष्ट्रवादी की है जिसका इस्तेमाल पार्टी तुष्टिकरण से व्यापत असंतोष को भुनाने में करना चाहती है !
प्रथम दृष्टया देखने में यह मामला आडवानी और मोदी के बीच लगता है बल्कि सही मायनो में यह मामला वर्चस्व के लिए अनुभव बनाम लोकप्रियता का है !
एक तरफ आडवानी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह. डॉ. जोशी जैसे अनुभवी नेता है जिन्होंने पार्टी को जमीनी स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक लाया है तो दूसरी तरफ मोदी, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, अनन्त कुमार जैसे नेता है जो आज की धारा में प्रासंगिक है !
बहरहाल पार्टी की अंतर्कलह भले ही सुलझा लिया गया हो पर इस मामले से उपजी स्थिति ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुचाया है !
आडवानी के इस्तीफे और इस्तीफे में उनके द्वारा इस्तेमाल किये गए शब्द उनकी महत्वाकांक्षा का स्पष्ट दीदार करा रहे थे ! इस वाकये ने एक बार फिर युवाओ के ह्रदय में राजनीति के प्रति ग्लानी की भावना के साथ साथ वृद्ध नेताओ को अपने हितों का शत्रु मानने पर विवश कर दिया है ! साथ ही सरकार की नीतियों से असंतुष्ट जनता के मतों का विपक्ष के प्रति झुकाव के संदर्भ में कांग्रेस की चिंता का भी कुछ समाधान किया है ! जनता के बीच सीधा सन्देश गया है कि “ जो चुनाव पूर्व संगठित नहीं है वो चुनाव बाद देश रुपी संगठन कैसे चलाएंगे” !
यह भारत जैसे महान लोकतांत्रिक देश का दुर्भाग्य कहा जायेगा कि एक तरफ परिवारवाद केंद्रित सत्ता पक्ष है तो महत्वाकांक्षा के लिए कलह करता विपक्ष !
ऐसे में युवाओं को आगे आकर राष्ट्र-निर्माण के लिए राजनीति के नए आयामों की पहल की आवश्कयता करनी होगी !
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